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मिला एक गूना सुकूँ हमें जो तुम्हारे हिज्र में रो लिए | शाही शायरी
mila ek guna sukun hamein jo tumhaare hijr mein ro liye

ग़ज़ल

मिला एक गूना सुकूँ हमें जो तुम्हारे हिज्र में रो लिए

कृष्ण मोहन

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मिला एक गूना सुकूँ हमें जो तुम्हारे हिज्र में रो लिए
ज़रा बार-ए-क़ल्ब सुबुक हुआ कई दाग़ दर्द के धो लिए

हो नशात-ए-दिल कि मलाल-ए-दिल हमें पेश करना जमाल-ए-दिल
कभी हँस के फूल खिला लिए कभी रोके मोती पिरो लिए

है रहीन ग़म मिरी जुस्तुजू ये है कैसा गुलशन-ए-रंग-ओ-बू
यहाँ कुछ गुलो की तलाश में कई ख़ार मैं ने चुभो लिए

कई उम्र दौड़ते-भागते रहे यूँ तो शब को भी जागते
कभी थक गए तो ठहर गए कभी नींद आई तो सो लिए

सभी लोग मस्त-ए-शुऊ'र हैं कि ख़ुदी के नश्शे में चूर हैं
कोई ग़म-शनास नहीं यहाँ ग़म-ए-दिल किसी पे न खोलिए

ये उन्हीं का नूर है जिस में हम चले हौसले से क़दम क़दम
जो सरिश्क ग़म के बहा लिए जो दिए वफ़ा के संजो लिए