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मिल भी जाता जो आब आब-ए-बक़ा क्या करते | शाही शायरी
mil bhi jata jo aab aab-e-baqa kya karte

ग़ज़ल

मिल भी जाता जो आब आब-ए-बक़ा क्या करते

तनवीर अहमद अल्वी

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मिल भी जाता जो आब आब-ए-बक़ा क्या करते
ज़िंदगी ख़ुद भी थी जीने की सज़ा क्या करते

सरहदें वो न सही अपनी हदों से बाहर
जो भी मुमकिन था क्या उस के सिवा क्या करते

हम सराबों में सदा फूल खिलाते गुज़रे
ये भी था आबला-पाई का सला किया करते

जिस को मौहूम लकीरों का मुरक़्क़ा' कहिए
लौह-ए-दिल पर था यही नक़्श-ए-वफ़ा क्या करते

अब वो शालों का क़फ़स हो कि लहू की ख़ुश्बू
दिल पे लहराती रही बर्क़-ए-अदा क्या करते

माँगने को तो यहाँ अपने सिवा कुछ भी न था
लब पे आता भी अगर हर्फ़-ए-दुआ क्या करते

हम को ख़ुद अर्ज़-ए-तमन्ना का सलीक़ा भी न था
वो भी 'तनवीर' भला उज़्र-ए-जफ़ा क्या करते