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मेरी तुझ से क्या टक्कर है | शाही शायरी
meri tujhse kya Takkar hai

ग़ज़ल

मेरी तुझ से क्या टक्कर है

सौरभ शेखर

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मेरी तुझ से क्या टक्कर है
मैं इक शय तू सौदागर है

ख़्वाबो तुम आहिस्ता आना
मेरी नींद का पुल जर्जर है

ग़ाफ़िल रहने दो बच्चों को
फिर तो आगे डर ही डर है

दुखियारों की इस बस्ती के
हर घर में इक पूजा-घर है

शाम में दिन तब्दील हुआ अब
अब हर साया क़द-आवर है

अच्छे मूड में है वो दिल की
कहने का अच्छा अवसर है

हाथ मिलाओ अहल-ए-मोहब्बत
नफ़रत काफ़ी ताक़त-वर है

सच मत बोलो उस पागल से
उस के हाथों में पत्थर है

ग़ीबत की इस आब-ओ-हवा में
'सौरभ' का रहना दूभर है