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मेरी नज़र नज़र में हैं मंज़र जले हुए | शाही शायरी
meri nazar nazar mein hain manzar jale hue

ग़ज़ल

मेरी नज़र नज़र में हैं मंज़र जले हुए

मुशीर झंझान्वी

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मेरी नज़र नज़र में हैं मंज़र जले हुए
उभरेंगे हर्फ़ हर्फ़ से पैकर जले हुए

शो'लों का रक़्स आब-ए-रवाँ तक पहुँच गया
दरिया पे बह के आए हैं छप्पर जले हुए

हर ज़र्रा इस ज़मीन का लौ दे रहा है आज
कल आप को मिलेंगे समुंदर जले हुए

मज़लूम-ओ-बे-क़ुसूर जिन्हें कह रहे हैं आप
निकले हैं उन के घर से भी ख़ंजर जले हुए

आँखों की इस जलन से ना मिल पाएगी नजात
देखे हैं मेरी आँखों ने मंज़र जले हुए

डरने लगे हैं आग से आतिश-परस्त भी
देखे हैं जब से चारों तरफ़ सर जले हुए

बे-ख़्वाब वहशतों को सुलाने के वास्ते
आरास्ता हैं आज भी बिस्तर जले हुए