EN اردو
मेरी नज़र में दोस्तो जिस शहर के गुलज़ार हैं | शाही शायरी
meri nazar mein dosto jis shahr ke gulzar hain

ग़ज़ल

मेरी नज़र में दोस्तो जिस शहर के गुलज़ार हैं

ख़ुर्शीदुल इस्लाम

;

मेरी नज़र में दोस्तो जिस शहर के गुलज़ार हैं
सब्ज़ा बड़ा सरकश है वाँ और सर्द ख़ुश-रफ़्तार हैं

शाख़ें हैं वाँ आरास्ता और गुल हैं वाँ नौ-ख़ास्ता
प्याले हैं जिन के मध-भरे और पैरहन ज़र-कार हैं

हर हर क़दम पर ख़ूब-रू आराम-ए-जाँ और काम-जू
आँखों में ग़ुंचों की चटक चेहरे ग़ज़ब गुलनार हैं

जितने ये कम-आमेज़ हैं इतने ही शौक़-अंगेज़ हैं
ज़ाहिर में जितने सख़्त हैं इतने ही कम-आज़ार हैं

उन की निगह का साइक़ा करता है कार-ए-लाइक़ा
चक्खें जो उस का ज़ाइक़ा सातों समुंदर पार हैं

हर्फ़-ए-ग़लत दीन-ए-कुहन सारे हिजाबात-ए-बदन
आज़ाद हैं सब मर्द-ओ-ज़न सब आदमी सब यार हैं

जागे हुए हैं मय-कदे हर कुफ़्र-ओ-ईमाँ से परे
बिखरी हुई तस्बीह है टूटे हुए ज़ुन्नार हैं