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मेरी नज़र के लिए कोई रिवायत न थी | शाही शायरी
meri nazar ke liye koi riwayat na thi

ग़ज़ल

मेरी नज़र के लिए कोई रिवायत न थी

अनवर सिद्दीक़ी

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मेरी नज़र के लिए कोई रिवायत न थी
सब की तरह देखना जब्र था आदत न थी

ऐसा लगा जैसे मैं मंज़र-ए-मानूस था
उस की निगाहों में कल शोख़ी-ए-हैरत न थी

मेरे शब ओ रोज़ थे मेरी सदी की तरह
कौन सा लम्हा था वो जिस में क़यामत न थी

पैरहन-ए-जिस्म-ओ-जाँ ज़ख़म-ए-सितम था तमाम
कैसा सितम-गर था वो कोई जराहत न थी

कब किसी दीवार से सैल-ए-तमन्ना रुका
गर्म लहू की कभी कोई शरीअत न थी

कितने सुबुक-दिल हुए तुझ से बिछड़ने के बाद
उन से भी मिलना पड़ा जिन से मोहब्बत न थी