मेरी मिट्टी का नसब बे-सर-ओ-सामानी से
काम कुछ उस को हवा से न तलब पानी से
मेरे अतराफ़ निगाहों की ये दीवार न खींच
और आवारा हुआ जाता हूँ निगरानी से
अपने आईने से तोड़ आ के मिरा आईना
अपने आईने को भर कर मिरी हैरानी से
हम जो इक उम्र लगा देते हैं पास आने में
कैसे लम्हों में बिछड़ जाते हैं आसानी से
है यही वक़्त कि पत्थर से ख़ुदा पैदा हो
देख अब नूर टपकने लगा पेशानी से
इश्क़ को है यही इक सूरत-ए-इज़हार नसीब
जो भी कहना है कहे चाक-गरेबानी से
शहर हो जाता है पहले तो जुनून-ए-नाकाम
तोड़ता है फिर इसे संग-ए-बयाबानी से
'फ़रहत-एहसास' उसी जहल से कर फिर से रुजूअ'
तेरे हक़ में यही बेहतर है हमा-दानी से
ग़ज़ल
मेरी मिट्टी का नसब बे-सर-ओ-सामानी से
फ़रहत एहसास