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मेरी मानिंद ख़ुद-निगर तन्हा | शाही शायरी
meri manind KHud-nigar tanha

ग़ज़ल

मेरी मानिंद ख़ुद-निगर तन्हा

मजीद अमजद

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मेरी मानिंद ख़ुद-निगर तन्हा
ये सुराही में फूल नर्गिस का

इतनी शमएँ थीं तेरी यादों की
अपना साया भी अपना साया न था

मेरे नज़दीक तेरी दूरी थी
कोई मंज़िल थी कोई आलम था

हाए वो ज़िंदगी-फ़रेब आँखें
तू ने क्या सोचा मैं ने क्या समझा

सुबह की धूप है कि रस्तों पर
मुंजमिद बिजलियों का इक दरिया

घुंघरूओं की झनक-मनक में बसी
तेरी आहट! मैं किस ख़याल में था

फिर कहीं दल के बुर्ज पर कोई अक्स
फ़ासलों की फ़सील से उभरा

फूल मुरझा न जाएँ बजरों में
माँझियो कोई गीत साहिल का

वक़्त की सरहदें सिमट जातीं
तेरी दूरी से कुछ बईद न था

उम्र जलती है बख़्त जल्वों के
ज़ीस्त मिटती है भाग मिट्टी का

रहें दर्दों की चौकियाँ चौकस
फूल लोहे की बाड़ पर भी खिला

जो ख़ुद उन के दिलों में था तह-ए-संग
वो ख़ज़ाना किसी किसी को मिला

लाख क़द्रें थीं ज़िंदगानी की
ये मुहीत इक अजीब ज़ाविया था

है जो ये सर पे ज्ञान की गठरी
खोल कर भी इसे कभी देखा

रोज़ झुकता है कू-ए-दिल की तरफ़
काख़-ए-सद-बाम का कोई ज़ीना