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मेरी ग़ज़ल में एक नया सोज़-ए-जाँ भी है | शाही शायरी
meri ghazal mein ek naya soz-e-jaan bhi hai

ग़ज़ल

मेरी ग़ज़ल में एक नया सोज़-ए-जाँ भी है

सलीम अहमद

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मेरी ग़ज़ल में एक नया सोज़-ए-जाँ भी है
माना अभी गिरानी-ए-लफ़्ज़-ओ-बयाँ भी है

कुछ दिल भी है नशात-ए-तमन्ना से शाद-काम
और कुछ तिरी जफ़ा पे करम का गुमाँ भी है

क्या इस हुजूम-ए-शौक़ से घबरा न जाएगा
माना वो बद-गुमान-ए-वफ़ा मेहरबाँ भी है

कुछ नाज़-ए-तमकनत भी है पास-ए-हया के साथ
फिर बार-ए-आरज़ू से ज़रा सरगिराँ भी है

तकलीफ़-ए-इल्तिफ़ात न दूँ उस निगाह को
बा-वस्फ़-ए-जौर-ओ-नाज़ जो आराम-ए-जाँ भी है

माइल करम पे है मगर अल्लाह रे एहतियात
पैमान-ए-आरज़ू से मिरे बद-गुमाँ भी है

उस यार दिल-शिकन पे हैं दिलदारियाँ भी ख़त्म
जो हम से सरगिराँ भी है और मेहरबाँ भी है

तू जिस तरह सुने ये है तेरा मोआ'मला
ग़म अम्र-ए-वाक़िआ भी है और दास्ताँ भी है

कुछ 'अस्करी' का फ़ैज़ भी है बाइ'स-ए-ग़ज़ल
और कुछ 'सलीम' मेरी तबीअ'त रवाँ भी है