मेरी आहों से जिला चाहता है 
आसमाँ रद्द-ए-बला चाहता है 
मुझ को तो मर्ज़ी-ए-मौला औला 
और दिल सब का भला चाहता है 
बुर्रिश-ए-तेग़ न मैली हो जाए 
बा-सफ़ा हूँ वो गिला चाहता है 
आइना हो गया आईना-सरिश्त 
या'नी वो मुझ में ढला चाहता है 
मौज-दर-मौज गुलिस्ताँ सारा 
मेरे दामन पे खुला चाहता है 
बोरिए को कहा सामान-ए-नशात 
देखते रहना जिला चाहता है 
मुझ को दरवेश समझने वाला 
ख़ुश-गुमानी का सिला चाहता है 
ज़ानू-ए-शौक़ से लग बैठा है 
आईना अपनी जिला चाहता है 
नहीं पुर-शौक़ कोई इस के लिए 
'हसनात' अब तो ख़ला चाहता है
        ग़ज़ल
मेरी आहों से जिला चाहता है
अबुल हसनात हक़्क़ी

