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मेरे सर के वास्ते ऐसी सज़ा रखता है कौन | शाही शायरी
mere sar ke waste aisi saza rakhta hai kaun

ग़ज़ल

मेरे सर के वास्ते ऐसी सज़ा रखता है कौन

रफ़ीक़ुज़्ज़माँ

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मेरे सर के वास्ते ऐसी सज़ा रखता है कौन
आस्तीनों में कहीं ख़ंजर छुपा रखता है कौन

सब्ज़ शाख़ों पर सुनहरे फूल से खिलने लगे
लब-ब-लब मौसम-असर ऐसी दुआ रखता है कौन

ये जो मेरी ज़ात में बैठा हुआ है मैं नहीं
मुझ को मेरे रू-ब-रू मुझ से जुदा रखता है कौन

जो भी है मेरा अमल वो भी अमल मेरा नहीं
फिर भी मेरे नाम से सब कुछ लिखा रखता है कौन

जाने वाला जा चुका मुँह मोड़ के बरसों हुए
दिल की चौखट पर मगर अब भी दिया रखता है कौन

रख दिया दैर-ओ-हरम में उस को रखने को 'रफीक'
देखना मेरी तरह मेरा ख़ुदा रखता है कौन