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मेरे परवाने को अब मुज़्दा-ए-मायूसी है | शाही शायरी
mere parwane ko ab muzhda-e-mayusi hai

ग़ज़ल

मेरे परवाने को अब मुज़्दा-ए-मायूसी है

मोहम्मद अमान निसार

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मेरे परवाने को अब मुज़्दा-ए-मायूसी है
क्यूँकि वो पर्दा-नशीं शाला-ए-फ़ानूसी है

साक़िया दस्त-ए-निगारीं से तिरे मीना में
हम जो करते हैं नज़र जल्वा-ए-ताऊसी है

जाम-ए-लबरेज़ चहकता है यद-ए-बैज़ा सा
यार के हाथ में क्या मोजज़ा-ए-मूसी है

मरती उस गुल पे है बिकता है जो कौड़ी कौड़ी
तुझ पे मरती नहीं बुलबुल भी कुछ उल्लू सी है

ऐ सनम नाला ओ अफ़्ग़ाँ से मिरे शाम ओ सहर
दिल के बुत-ख़ाने में अब नग़्मा-ए-नाक़ूसी है

दश्त में चल कि हर इक ख़ार-ए-बयाबाँ को 'निसार'
जूँ हिना कब से तमन्ना-ए-क़दम-बोसी है