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मेरे नालों से तह-ओ-बाला हुई अक्सर ज़मीं | शाही शायरी
mere nalon se tah-o-baala hui aksar zamin

ग़ज़ल

मेरे नालों से तह-ओ-बाला हुई अक्सर ज़मीं

ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर लखनवी

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मेरे नालों से तह-ओ-बाला हुई अक्सर ज़मीं
ज़ेर-ए-पा आया फ़लक और बारहा सर पर ज़मीं

है दयार-ए-माह-रु का बस यही क़ासिद निशाँ
आसमाँ तुझ को नज़र आएगी वाँ की सर-ज़मीं

किस तरफ़ जाऊँ कि हो इन दो बलाओं से नजात
आसमाँ घर घर यही है और यही घर घर ज़मीं

बारी बारी ये मुझे पीसें ब-रंग-ए-आसिया
आसमाँ दिन भर रहे गर्दिश में तो शब-भर ज़मीं

मिस्ल-ए-ख़ुर्शीद आसमाँ जलता है आह-ए-गर्म से
काँपती है ठंडी साँसों से मिरी थर-थर ज़मीं

जिस जगह हैं दफ़्न क़ातिल तेरी मिज़्गाँ के शहीद
वाँ एवज़ सब्ज़ी के पैदा करती है नश्तर ज़मीं

सैकड़ों इस में गए महबूब जाए-ए-रश्क है
रखती है आग़ोश में क्या क्या परी-पैकर ज़मीं

आतिश-ए-फ़ुर्क़त से आलम कोरा-ए-आतिश हुआ
आसमाँ है दूद हम अख़गर में और मुजमर ज़मीं

इश्क़-ए-ख़ाल-ए-यार ने ऐसा किया ज़ार-ओ-नहीफ़
बैठे रहने को मिरे काफ़ी है अब तिल भर ज़मीं