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मेरे लहू की सरशारी क्या उस की फ़ज़ा भी कितनी देर | शाही शायरी
mere lahu ki sarshaari kya uski faza bhi kitni der

ग़ज़ल

मेरे लहू की सरशारी क्या उस की फ़ज़ा भी कितनी देर

मोहम्मद अहमद रम्ज़

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मेरे लहू की सरशारी क्या उस की फ़ज़ा भी कितनी देर
तेरे कफ़-ए-नाज़ुक पे रहेगा रंग-ए-हिना भी कितनी देर

उस की नज़र की हल्की सी जुम्बिश क्या क्या जौहर रखती है
ला सकता है ताब-ए-तमाशा आईना भी कितनी देर

अब के वस्ल का मौसम यूँही बेचैनी में बीत गया
उस के होंटों पर चाहत का फूल खिला भी कितनी देर

कोई तकल्लुम कोई इशारा कोई आहट पास नहीं
ज़िंदा रहे वीराना-ए-जाँ में दिल की सदा भी कितनी देर

बिखरा दीं अतराफ़-ए-जुनूँ में कैसी कैसी ख़ुशबुएँ
कूचा-ए-यार में ठहरी होगी बाद-ए-सबा भी कितनी देर

मेरे दिल में गहराई तक ज़ख़्म हैं अंधी ख़्वाहिश के
और अभी होंटों पे रहेगा ज़हर-ए-दुआ भी कितनी देर

अपनी एक अदा रखती है उस के बाद की गुदाज़ी भी
कुछ तो सोचो उस पे चलेगा सेहर-ए-क़बा भी कितनी देर

आगे धुँद है बे-सम्ती की पीछे ग़ुबार-ए-गुम-शुदगी
मेरे सर में साथ रहेगी मेरी अना भी कितनी देर

उस के तग़ाफ़ुल का भी भरम रख उस से इतनी छेड़ न कर
'रम्ज़' बरसती है बे-मौसम कोई घटा भी कितनी देर