मेरे ख़्वाबों का कभी जब आसमाँ रौशन हुआ
रहगुज़ार-ए-शौक़ का एक इक निशाँ रौशन हुआ
अजनबी ख़ुशबू की आहट से महक उट्ठा बदन
क़हक़हों के लम्स से ख़ौफ़-ए-ख़िज़ाँ रौशन हुआ
फिर मिरे सर से तयक़्क़ुन का परिंदा उड़ गया
फिर मिरे एहसास में ताज़ा-गुमाँ रौशन हुआ
जाने कितनी गर्दनों की हो गईं शमएँ क़लम
तब कहीं जा कर ये तीरा ख़ाक-दाँ रौशन हुआ
शहर में ज़िंदाँ थे जितने सब मुनव्वर हो गए
किस जगह दिल को जलाया था कहाँ रौशन हुआ
जल गया जब यास के शोलों से सारा तन 'ज़की'
तब कहीं उम्मीद का धुँदला निशाँ रौशन हुआ
ग़ज़ल
मेरे ख़्वाबों का कभी जब आसमाँ रौशन हुआ
ज़की तारिक़