मेरे हमराह सितारे कभी जुगनू निकले
जुस्तुजू में तिरी हर रात मुहिम-जू निकले
तेरी रोती हुई आँखें हैं मिरी आँखों में
वर्ना पत्थर में कहाँ जान कि आँसू निकले
साँस लेने की जसारत भी न कर पाऊँगा
जिस्म से मेरे जो पल भर के लिए तू निकले
अहल-ए-दिल यूँही तर-ओ-ताज़ा नहीं रखते उन्हें
ज़ख़्म भर जाएँ तो मुमकिन नहीं ख़ुशबू निकले
ज़िक्र में तेरे गवारा नहीं इतना भी मुझे
मा-सिवा तेरे कोई और भी पहलू निकले
तेरी चौखट पे पहुँचना है सलामत मुझ को
जान प्यासे की जो निकले तो लब-ए-जू निकले
मैं वो नादान कि ढूँडूँ कोई अपने जैसा
और अहबाब थे 'आज़िम' कि अरस्तू निकले
ग़ज़ल
मेरे हमराह सितारे कभी जुगनू निकले
ऐनुद्दीन आज़िम