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मेरे और अपने दरमियाँ उस ने | शाही शायरी
mere aur apne darmiyan usne

ग़ज़ल

मेरे और अपने दरमियाँ उस ने

सुरेन्द्र शजर

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मेरे और अपने दरमियाँ उस ने
कितना फैला दिया धुआँ उस ने

ख़ुद बुलाती थी मंज़िल-ए-मक़्सूद
तय न कीं अपनी दूरियाँ उस ने

जिन से पहचान थी कभी उस की
खो दिए हैं वो सब निशाँ उस ने

झूट बोला नहीं गया उस से
कर लिया ख़ुद को बे-ज़बाँ उस ने

बे-ख़बर है वो मौसमों से 'शजर'
बंद कर ली थीं खिड़कियाँ उस ने