मेरे अंदर जो इक फ़क़ीरी है
ये ही सब से बड़ी अमीरी है
कुछ नहीं है मगर सभी कुछ है
देख कैसी जहान-गीरी है
पंखुड़ी इक गुलाब के जैसी
मेरे शे'रों में ऐसी मीरी है
शे'र कहता है बेच देता है
तुझमें कैसी ये ला-ज़मीरी है
तुझ से रिश्ता कभी नहीं सुलझा
उस की फ़ितरत ही काश्मीरी है
रूह और जिस्म सुर्ख़ हैं ख़ूँ से
फिर भी ये पैरहन हरीरी है
ग़ज़ल
मेरे अंदर जो इक फ़क़ीरी है
अजय सहाब