EN اردو
मेरा सर कब किसी दरबार में ख़म होता है | शाही शायरी
mera sar kab kisi darbar mein KHam hota hai

ग़ज़ल

मेरा सर कब किसी दरबार में ख़म होता है

कमाल अहमद सिद्दीक़ी

;

मेरा सर कब किसी दरबार में ख़म होता है
कूचा-ए-यार में लेकिन ये क़दम होता है

पुर्सिश-ए-हाल भी इतनी कि मैं कुछ कह न सकूँ
इस तकल्लुफ़ से करम हो तो सितम होता है

शैख़ मय-ख़ाने में करता है इरम की बातें
इसी मय-ख़ाने का इक गोशा इरम होता है

एक दिल है कि उजड़ जाए तो बस्ता ही नहीं
एक बुत-ख़ाना है उजड़े तो हरम होता है

राहबर राह-नवर्दी से परेशाँ है 'कमाल'
जिस तरफ़ जाए मिरा नक़्श-ए-क़दम होता है