मेरा अदम वजूद भी क्या ज़र-निगार था
चारों तरफ़ ख़ला में चमकता ग़ुबार था
साहिल बनी निगाह की हद फ़ासले मिटे
गिर्दाब-ए-मौज-ए-दूद मकाँ का हिसार था
पी कर लहू सियाह हुई किश्त-ए-आरज़ू
क्या देखते कि ख़ाक का दा'वा बहार था
मौजों में डूबती हुई सुर्ख़ी थी शाम की
दिल दश्त-ए-पुर-सुकूत था दरिया क़रार था
इक बोझ उठाए शाम को लौटा हूँ मैं निढाल
मैं अपने दाम-ए-शौक़ में क्या ख़ुद शिकार था
दिल का सुराग़ क्या कि जहाँ तक निगाह की
नैरंग-ए-नक़्श-ए-रफ़्ता-ए-पा-ए-फ़रार था
मैं इक शजर सुकूत था और मेरी छाँव में
गिरता हुआ सदाओं का इक आबशार था
ख़ुर्शीद-ओ-माह मेरे लिए इक फ़साना थे
तारीक जंगलों का मैं लैल-ओ-नहार था
शो'ले दराज़ दस्त थे और मेरे सामने
ख़ुर्शीद शाम-ए-दश्त का तारीक ग़ार था
मैं ख़ाक-ए-दिल बिखेर रहा था हवा में 'ज़ेब'
और इस से बे-ख़बर था कि उस में शरार था
ग़ज़ल
मेरा अदम वजूद भी क्या ज़र-निगार था
ज़ेब ग़ौरी