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मेरा अदम वजूद भी क्या ज़र-निगार था | शाही शायरी
mera adam wajud bhi kya zar-nigar tha

ग़ज़ल

मेरा अदम वजूद भी क्या ज़र-निगार था

ज़ेब ग़ौरी

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मेरा अदम वजूद भी क्या ज़र-निगार था
चारों तरफ़ ख़ला में चमकता ग़ुबार था

साहिल बनी निगाह की हद फ़ासले मिटे
गिर्दाब-ए-मौज-ए-दूद मकाँ का हिसार था

पी कर लहू सियाह हुई किश्त-ए-आरज़ू
क्या देखते कि ख़ाक का दा'वा बहार था

मौजों में डूबती हुई सुर्ख़ी थी शाम की
दिल दश्त-ए-पुर-सुकूत था दरिया क़रार था

इक बोझ उठाए शाम को लौटा हूँ मैं निढाल
मैं अपने दाम-ए-शौक़ में क्या ख़ुद शिकार था

दिल का सुराग़ क्या कि जहाँ तक निगाह की
नैरंग-ए-नक़्श-ए-रफ़्ता-ए-पा-ए-फ़रार था

मैं इक शजर सुकूत था और मेरी छाँव में
गिरता हुआ सदाओं का इक आबशार था

ख़ुर्शीद-ओ-माह मेरे लिए इक फ़साना थे
तारीक जंगलों का मैं लैल-ओ-नहार था

शो'ले दराज़ दस्त थे और मेरे सामने
ख़ुर्शीद शाम-ए-दश्त का तारीक ग़ार था

मैं ख़ाक-ए-दिल बिखेर रहा था हवा में 'ज़ेब'
और इस से बे-ख़बर था कि उस में शरार था