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मैं रतजगों का सफ़ीर ठहरा था कितनी रातें गुज़ार आया | शाही शायरी
main ratjagon ka safir Thahra tha kitni raaten guzar aaya

ग़ज़ल

मैं रतजगों का सफ़ीर ठहरा था कितनी रातें गुज़ार आया

शब्बीर नाक़िद

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मैं रतजगों का सफ़ीर ठहरा था कितनी रातें गुज़ार आया
रियाज़ था बा-रुसूख़ मेरा मिरे सुख़न में निखार लाया

कोई भी हालत नहीं दवामी कोई भी सूरत नहीं मुदामी
हयात अपनी है वो ख़ज़ाना नहीं है जिस में क़रार माया

न मुझ पे लुत्फ़-ए-सहर हुआ है न मुझ पे वा कोई दर हुआ है
न मैं ने देखी है रुत सुहानी न मुझ पे अब्र-ए-बहार छाया

जिसे मैं समझा था यार अपना जिसे कहा ग़म-गुसार अपना
बनाया था हम-जलीस जिस को सितम उसी ने हज़ार ढाया

जो मैं ने छेड़ा है राग 'नाक़िद' वो राग बे-वक़्त का नहीं है
सहर को छेड़ी है भैरवी तो बसंत रुत में मलार गाया