मैं रतजगों का सफ़ीर ठहरा था कितनी रातें गुज़ार आया
रियाज़ था बा-रुसूख़ मेरा मिरे सुख़न में निखार लाया
कोई भी हालत नहीं दवामी कोई भी सूरत नहीं मुदामी
हयात अपनी है वो ख़ज़ाना नहीं है जिस में क़रार माया
न मुझ पे लुत्फ़-ए-सहर हुआ है न मुझ पे वा कोई दर हुआ है
न मैं ने देखी है रुत सुहानी न मुझ पे अब्र-ए-बहार छाया
जिसे मैं समझा था यार अपना जिसे कहा ग़म-गुसार अपना
बनाया था हम-जलीस जिस को सितम उसी ने हज़ार ढाया
जो मैं ने छेड़ा है राग 'नाक़िद' वो राग बे-वक़्त का नहीं है
सहर को छेड़ी है भैरवी तो बसंत रुत में मलार गाया

ग़ज़ल
मैं रतजगों का सफ़ीर ठहरा था कितनी रातें गुज़ार आया
शब्बीर नाक़िद