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मेले में गर नज़र न आता रूप किसी मतवाली का | शाही शायरी
mele mein gar nazar na aata rup kisi matwali ka

ग़ज़ल

मेले में गर नज़र न आता रूप किसी मतवाली का

मुमताज़ गुर्मानी

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मेले में गर नज़र न आता रूप किसी मतवाली का
फीका फीका रह जाता त्यौहार भी इस दीवाली का

मायों बैठे रूप-सरूप के रोग से वाक़िफ़ लगती है
आँचल भीगा जाता है इस दूल्हन की शहबाली का

बर्तन बर्तन चीख़ रही थी कौन समझता उस की बात
दिल का बर्तन ख़ाली था उस बर्तन बेचने वाली का

गाल की जानिब झुकती है शरमाती है हट जाती है
आज इरादा ठीक नहीं है जान तुम्हारी बाली का

शहज़ादे तलवार थमा दे अब दरबान के हाथों में
कह दे ख़ाली हाथ न जाए अब के बार सवाली का

फिर 'मुमताज़' किसी की यादें कूजें बन कर लौटेंगी
मौसम आने वाला है फिर ज़ख़्मों की हरियाली का