मेहवर पे भी गर्दिश मिरी मेहवर से अलग हो
उस बहर में तैरूँ जो समुंदर से अलग हो
अपना भी फ़लक हो मगर अफ़्लाक से हट के
हो बोझ भी सर का तो मिरे सर से अलग हो
मैं ऐसा सितारा हूँ तिरी काहकशाँ में
मौजूद हो मंज़र में न मंज़र से अलग हो
दीवार-ए-नुमाइश की ख़राशों का हूँ मैं रंग
हर लम्हा वो धागा है जो चादर से अलग हो
उस आतिश-ए-अफ़्सूँ को कोई कैसे बुझाए
जिस आग में घर जलता हो वो घर से अलग हो
छतरी रखूँ उस अब्र-ए-सियह-गाम की ख़ातिर
कूफ़ी भी न हो और बहत्तर से अलग हो
रब और तमन्ना-ए-दुई वहम-ए-बशर है
हम-ज़ाद तो क्या अक्स भी दावर से अलग हो
दामन में वो दुनिया है जो दुनिया से जुदा है
आए वो क़यामत भी जो महशर से अलग हो
पारे की तरह शहर का बिखराओ है 'तफ़ज़ील'
ऐसा कोई बतलाओ जो अंदर से अलग हो
ग़ज़ल
मेहवर पे भी गर्दिश मिरी मेहवर से अलग हो
तफ़ज़ील अहमद