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मेहरबानी को तिरी आरिज़-ए-ताबाँ समझे | शाही शायरी
mehrbani ko teri aariz-e-taban samjhe

ग़ज़ल

मेहरबानी को तिरी आरिज़-ए-ताबाँ समझे

ख़लीलुर्रहमान राज़

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मेहरबानी को तिरी आरिज़-ए-ताबाँ समझे
रूठ जाने को ख़म-ए-काकुल-ए-पेचाँ समझे

सुब्ह-ए-ख़ंदाँ को मआल-ए-शब-ए-हिज्राँ समझे
शब को तनवीर का इक अक्स-ए-परेशाँ समझे

ज़ीस्त आशुफ़्तगी-ए-गोर-ए-ग़रीबाँ समझे
मौत को सिलसिला-ए-उम्र-ए-गुरेज़ाँ समझे

शोख़ किरनों को दिल-ए-सीना-फ़िगाराँ समझे
कहकशाओं को हसीं शहर-ए-निगाराँ समझे

हरम-ओ-दैर न जल्वा-गह-ए-जानाँ समझे
कुछ न समझे यही ऐ गर्दिश-ए-दौराँ समझे

कुछ समझ पाए न अहबाब के समझाने से
वक़्त ने पूछा कि समझे तो कहाँ हाँ समझे

साफ़ दिल सादा मिज़ाज ऐसी तबीअ'त पाई
हम तो वाइ'ज़ को भी इक बंदा-ए-यज़्दाँ समझे

जिस को कहते हैं नसीम आज वो है बाद-ए-सुमूम
और कभी फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ को भी बहाराँ समझे

फूट कर बहने लगे आँख से नाले शब-ए-हिज्र
और हम-साए उसे ने'मत-ए-बाराँ समझे

रंग लाया है गुलिस्ताँ की तमन्नाओं का ख़ूँ
हम बड़ी देर में मफ़्हूम-ए-बहाराँ समझे