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मेआ'र-ए-सुख़न हूँ न कोई अज़्मत-ए-फ़न हूँ | शाही शायरी
mear-e-suKHan hun na koi azmat-e-fan hun

ग़ज़ल

मेआ'र-ए-सुख़न हूँ न कोई अज़्मत-ए-फ़न हूँ

ख़ुर्शीद अहमद जामी

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मेआ'र-ए-सुख़न हूँ न कोई अज़्मत-ए-फ़न हूँ
बढ़ते हुए पथराव में शीशे का बदन हूँ

इस तरह मुझे देख रहा है कोई जैसे
मैं दूर के जलते हुए ख़्वाबों की थकन हूँ

सौ बार अंधेरों ने जिसे क़त्ल किया है
तख़्लीक़ के माथे की वही एक किरन हूँ

आवाज़-ए-अनल-हक़ की तरह साथ ही तेरे
इक उम्र से ऐ सिलसिला-ए-दार-ओ-रसन हूँ

ज़ख़्मों के झरोके में कोई शम्अ जला कर
कहता है मैं कुछ और नहीं दर्द-ए-वतन हूँ

हैं जिस के लिए आज नए लफ़्ज़-ओ-मआ'नी
तारीख़ का वो नश्शा-ए-सहबा-ए-कुहन हूँ

सहरा का सुलगता हुआ एहसास हूँ 'जामी'
ज़र्रों की तरह दहर में बिखरा हुआ तन हूँ