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मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं | शाही शायरी
maze jahan ke apni nazar mein KHak nahin

ग़ज़ल

मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं

मिर्ज़ा ग़ालिब

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मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं
सिवाए ख़ून-ए-जिगर सो जिगर में ख़ाक नहीं

मगर ग़ुबार हुए पर हवा उड़ा ले जाए
वगरना ताब ओ तवाँ बाल-ओ-पर में ख़ाक नहीं

ये किस बहिश्त-शमाइल की आमद आमद है
कि ग़ैर-ए-जल्वा-ए-गुल रहगुज़र में ख़ाक नहीं

भला उसे न सही कुछ मुझी को रहम आता
असर मिरे नफ़स-ए-बे-असर में ख़ाक नहीं

ख़याल-ए-जल्वा-ए-गुल से ख़राब हैं मय-कश
शराब-ख़ाने के दीवार-ओ-दर में ख़ाक नहीं

हुआ हूँ इश्क़ की ग़ारत-गरी से शर्मिंदा
सिवाए हसरत-ए-तामीर घर में ख़ाक नहीं

हमारे शेर हैं अब सिर्फ़ दिल-लगी के 'असद'
खुला कि फ़ाएदा अर्ज़-ए-हुनर में ख़ाक नहीं