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मज़े बेताबियों के आ रहे हैं | शाही शायरी
maze betabiyon ke aa rahe hain

ग़ज़ल

मज़े बेताबियों के आ रहे हैं

जलील मानिकपूरी

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मज़े बेताबियों के आ रहे हैं
वो हम को हम उन्हें समझा रहे हैं

अभी कल तक थे कैसे भोले-भाले
ज़रा उभरे हैं आफ़त ढा रहे हैं

कहा उस ने सवाल-ए-वस्ल सुन कर
कि मुझ से आप कुछ फ़रमा रहे हैं

वो बिजली हैं तो हों उन को मुबारक
मुझे किस वास्ते तड़पा रहे हैं

मुझे तो इंतिज़ार-ए-चारागर है
इलाही ग़श पे ग़श क्यूँ आ रहे हैं

रहे दामन भरा उन का हमेशा
लहद पर फूल जो बरसा रहे हैं

सुना कर क़िस्सा-ए-परवाना-ओ-शम्अ
हमारे दिल को वो गरमा रहे हैं

दो रोज़ा हुस्न पर फूले हैं क्या गुल
बड़े कम-ज़र्फ़ हैं इतरा रहे हैं

कभी हम ने पिया था बादा-ए-इश्क़
'जलील' उस के मज़े अब आ रहे हैं