मज़े बेताबियों के आ रहे हैं
वो हम को हम उन्हें समझा रहे हैं
अभी कल तक थे कैसे भोले-भाले
ज़रा उभरे हैं आफ़त ढा रहे हैं
कहा उस ने सवाल-ए-वस्ल सुन कर
कि मुझ से आप कुछ फ़रमा रहे हैं
वो बिजली हैं तो हों उन को मुबारक
मुझे किस वास्ते तड़पा रहे हैं
मुझे तो इंतिज़ार-ए-चारागर है
इलाही ग़श पे ग़श क्यूँ आ रहे हैं
रहे दामन भरा उन का हमेशा
लहद पर फूल जो बरसा रहे हैं
सुना कर क़िस्सा-ए-परवाना-ओ-शम्अ
हमारे दिल को वो गरमा रहे हैं
दो रोज़ा हुस्न पर फूले हैं क्या गुल
बड़े कम-ज़र्फ़ हैं इतरा रहे हैं
कभी हम ने पिया था बादा-ए-इश्क़
'जलील' उस के मज़े अब आ रहे हैं
ग़ज़ल
मज़े बेताबियों के आ रहे हैं
जलील मानिकपूरी