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मज़ाक़-ए-इश्क़ से मैं शर्मसार हो न सका | शाही शायरी
mazaq-e-ishq se main sharmsar ho na saka

ग़ज़ल

मज़ाक़-ए-इश्क़ से मैं शर्मसार हो न सका

मख़मूर जालंधरी

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मज़ाक़-ए-इश्क़ से मैं शर्मसार हो न सका
कि राज़दाँ भी मिरा राज़दार हो न सका

नज़र से ज़र्रों को उल्टा गलों को चाक किया
मगर मैं सर-ख़ुश-ए-दीदार-ए-यार हो न सका

शबाब-ओ-इश्क़ की कुल उम्र एक लम्हा थी
मुझे ये लम्हा मगर साज़गार हो न सका

बजा-ए-ख़ुद मिरी हस्ती को कर दिया उर्यां
वो पर्दा-दार मिरा पर्दा-दार हो न सका

वो किस भरोसा पर उम्मीद-वार हो तेरा
तिरी नज़र पे जिसे ए'तिबार हो न सका

मुलाहिज़ा हो मोहब्बत का ज़ौक़-ए-नज़्ज़ारा
जो आश्कार था वो आश्कार हो न सका

मिरा मआल भी होता चमन सा इबरत-नाक
जुनूँ का शुक्र कि वक़्फ़-ए-बहार हो न सका

निगाह-ए-मस्त का मम्नून-ए-कैफ़ हूँ 'मख़मूर'
कि पी तो ख़ूब मगर बादा-ख़्वार हो न सका