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मज़ा बे-होशी-ए-उल्फ़त का होशयारों से मत पूछो | शाही शायरी
maza be-hoshi-e-ulfat ka hoshyaron se mat puchho

ग़ज़ल

मज़ा बे-होशी-ए-उल्फ़त का होशयारों से मत पूछो

मीर हसन

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मज़ा बे-होशी-ए-उल्फ़त का होशयारों से मत पूछो
अज़ीज़ाँ ख़्वाब की लज़्ज़त को बे-दारों से मत पूछो

हमें कुछ दख़्ल इन बातों में सुनते हो नहीं मुतलक़
हक़ीक़त बेवफ़ाई की वफ़ादारों से मत पूछो

जो पूछो तो अज़ीज़ाँ दिल से पूछो या कि तुम हम से
हमारी और उस की बात अग़्यारों से मत पूछो

गए वे दिन जो रहते थे जहाँ-आबाद में हम भी
ख़राबी शहर की सहरा के आवारों से मत पूछो

गुलों को कब ख़बर है हाल-ए-ज़ार-ए-अंदलीबों से
हक़ीक़त मुफ़लिसों की आह ज़र-दारों से मत पूछो

वो दिल रखते हैं अपना पास अपने बल्कि ग़ैरों का
हक़ीक़त बे-दिलों की आह दिल-दारों से मत पूछो

ख़बर दिल की अगरचे हो मिरे अश्कों से तुम सुन लो
ये वाक़िफ़ ख़ूब हैं उस घर से हरकारों से मत पूछो

उन्हों का जल रहा है दिल ख़ुदा जाने कि क्या बोलें
मिरा अहवाल कोई मेरे ग़म-ख़्वारों से मत पूछो

ये अपने हाल ही में मस्त हैं इन को किसी से क्या
ख़बर दुनिया वमा-फ़ीहा की मय-ख़्वारों से मत पूछो

हुआ है इन दिनों वो आश्नाओं से भी बेगाना
ख़राबी को 'हसन' की आज-कल यारों से मत पूछो