मौत को ज़ीस्त तरसती है यहाँ 
मौत ही कौन सी सस्ती है यहाँ 
दम की मुश्किल नहीं आसाँ करते 
किस क़दर उक़्दा-परस्ती है यहाँ 
सब ख़राबे हैं तमन्नाओं के 
कौन बस्ती है जो बस्ती है यहाँ 
छोड़ो बे-सर्फ़ा हैं सावन भादों 
देखो हर आँख बरसती है यहाँ 
अब तो हर औज का तारा डूबा 
औज का नाम ही पस्ती है यहाँ
        ग़ज़ल
मौत को ज़ीस्त तरसती है यहाँ
मुख़्तार सिद्दीक़ी

