मौत को ज़ीस्त की मंज़िल का पता कहते हैं
रह-रव-ए-इश्क़ फ़ना को भी बक़ा कहते हैं
अहल-ए-वहशत का न कुछ पोछिए क्या कहते हैं
वो तो अपना भी कहा उन का कहा कहते हैं
उन के किरदार की अज़्मत को भला क्या कहिए
इतने अच्छे हैं कि अच्छों को बुरा कहते हैं
क़ैद-ए-गुफ़्तार भी है बंदिश-ए-रफ़्तार भी है
ऐसे माहौल को ज़िंदान-ए-बला कहते हैं
बे-सदा बरबत-ए-ख़ामोश को कहने वालो
सुनने वाले तो ख़मोशी को सदा कहते हैं
जो घटा छा के न बरसे वो घटा क्या है घटा
हाँ अगर टूट के बरसे तो घटा कहते हैं
अहल-ए-हक़ देख के आईना-ए-हस्ती 'कौसर'
अक्स का हाल जो कहते हैं बजा कहते हैं

ग़ज़ल
मौत को ज़ीस्त की मंज़िल का पता कहते हैं
कौसर सीवानी