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मौत इक दरिंदा है ज़िंदगी बला सी है | शाही शायरी
maut ek darinda hai zindagi bala si hai

ग़ज़ल

मौत इक दरिंदा है ज़िंदगी बला सी है

सादुल्लाह शाह

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मौत इक दरिंदा है ज़िंदगी बला सी है
सुब्ह भी उदासी है शाम भी उदासी है

अपनी इंतिहा पर हम शायद इब्तिदा में हैं
तब भी बेबसी थी अब भी बे-लिबासी है

बादलों को आना है लौट कर इसी जानिब
ये ज़मीं ही प्यासी थी ये ज़मीं ही प्यासी है

ये भी एक ने'मत है काश तुम समझ पाओ
ज़िंदगी के अंदर जो अपने इक ख़ला सी है

जानता तो सब कुछ है वो भी मेरे बारे में
क्या करें जो ज़ालिम में ख़ू-ए-ना-शनासी है

फ़र्क़ है तो हम में है वक़्त एक जैसा है
सन छियानवे है ये या कि सन छियासी है