मौत हाँ बर-हक़ है लेकिन ज़िंदगी फ़ानी कहाँ
क़िस्सा-ए-हस्ती ब-अंजाम-ए-तन-आसानी कहाँ
आप के सज्दे में रूह-ए-सज्दा ऐ 'मानी' कहाँ
काश ये एहसास होता ख़म है पेशानी कहाँ
मुश्किलों से रूह को मानूस होना चाहिए
ज़िंदगी दुश्वारियों ही में है आसानी कहाँ
ऐ ज़ुलेख़ा बरतर-अज़-इंसानियत का ज़िक्र छोड़
दर्द से बेगाना रहना कार-ए-इंसानी कहाँ
तिश्ना-ए-मक़सूद धोखा है झलक उम्मीद की
सिर्फ़ इक मंज़र सराब-आसा है ये पानी कहाँ
काट दी बिस्तर पे अँगारों के सारी ज़िंदगी
ऐ तमन्ना इस से बढ़ कर कोई क़ुर्बानी कहाँ
मंज़िल-ए-हैरत में लाया इम्तिहान-ए-ताब-ए-दीद
देखिए ले जाएगी अब दिल की हैरानी कहाँ
कसरत-ओ-वहदत में निस्बत है शुआ'-ओ-शम्स की
एक ही जल्वा है जल्वों की फ़रावानी कहाँ
मिट के मेरे घर की रौनक़ आलम-ए-इबरत बनी
दश्त भी वीराँ है लेकिन नफ़-ए-वीरानी कहाँ
ऐश-ए-आज़ादी कभी मिलता तो होता रंज-ए-क़ैद
मुस्तक़िल जमइयत-ए-दिल है परेशानी कहाँ
ये फ़ज़ा-ए-फ़िक्र ऐ 'मानी' है मे'राज-ए-सुख़न
अब मगर तख़ईल में वो बर्क़-सामानी कहाँ
ग़ज़ल
मौत हाँ बर-हक़ है लेकिन ज़िंदगी फ़ानी कहाँ
मानी जायसी