मौसमों की बातों तक गुफ़्तुगू रही अपनी
मैं ने कब कही अपनी तुम ने कब सुनी अपनी
ख़त्म ही नहीं होते सिलसिले सवालों के
सिलसिले सवालों के और ख़ामुशी अपनी
एक हद पे क़ाएम है घटती है न बढ़ती है
तीरगी ज़माने की और रौशनी अपनी
कुछ हसीन तस्वीरें रह गईं निगाहों में
वर्ना क्या गुज़र पाती शाम-ए-ज़िंदगी अपनी
फ़स्ल-ए-गुल के हंगामे आरज़ी तो होते हैं
यूँ नहीं गुज़र जाते जैसे ज़िंदगी अपनी
कुछ उदास लोगों ने मेरा हाल पूछा था
वर्ना कौन करता है अर्ज़ वाक़ई अपनी
इस ख़ता ने मुझ को भी शर्मसार कर डाला
शहर के रईसों से दोस्ती न थी अपनी
कुछ ख़ुशी के आँसू भी अश्क-ए-ग़म के साथ आए
अपने जैसे लोगों से जब ग़ज़ल सुनी अपनी
ग़ज़ल
मौसमों की बातों तक गुफ़्तुगू रही अपनी
इक़बाल उमर