मौसम के बदलने का कुछ अंदाज़ा भी होता
जब घर ही बनाया था तो दरवाज़ा भी होता
हम शेर-ए-नमक-रेज़ सुनाते सर-ए-महफ़िल
जो ज़ख़्म फ़सुर्दा था तर-ओ-ताज़ा भी होता
तुम होते तो मेराज-ए-ख़यालात भी होती
बिखरे हुए अल्फ़ाज़ का शीराज़ा भी होता
जज़्बात की आँखों में चमकता कोई शोला
एहसास के रुख़्सार पे कुछ ग़ाज़ा भी होता
रक़्क़ासा-ए-दीरोज़ भी बे-पैरहन आती
दोशीज़ा-ए-इम्कान का ख़म्याज़ा भी होता
ग़ज़ल
मौसम के बदलने का कुछ अंदाज़ा भी होता
मज़हर इमाम