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मौसम-ए-गुल है तिरे सुर्ख़ दहन की हद तक | शाही शायरी
mausam-e-gul hai tere surKH dahan ki had tak

ग़ज़ल

मौसम-ए-गुल है तिरे सुर्ख़ दहन की हद तक

इमरान-उल-हक़ चौहान

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मौसम-ए-गुल है तिरे सुर्ख़ दहन की हद तक
या मिरे ज़ख़्मों से आरास्ता तन की हद तक

वक़्त हर ज़ख़्म को भर देता है कुछ भी कीजे
याद रह जाती है हल्की सी चुभन की हद तक

न किसी गुल से तअल्लुक़ न किसी ख़ार से बैर
रब्त गुलज़ार से है बू-ए-समन की हद तक

वो मुझे भूल नहीं पाया अभी तक यानी
मैं उसे याद हूँ माथे की शिकन की हद तक

बात इक और पस-ए-पर्दा-ए-अल्फ़ाज़ भी थी
उस ने ख़त मेरा पढ़ा लुत्फ़-ए-सुख़न की हद तक

महर-ओ-महताब की ख़्वाहिश से मुझे क्या लेना
मुतमइन दिल है जब इक सीम-बदन की हद तक

ये जो कहना है कि हर हुस्न जफ़ा-पेशा है
एक तोहमत है मिरे रश्क-ए-अदन की हद तक