EN اردو
मौसम-ए-गुल है न दौर-जाम-ओ-सहबा रह गया | शाही शायरी
mausam-e-gul hai na daur-e-jam-o-sahba rah gaya

ग़ज़ल

मौसम-ए-गुल है न दौर-जाम-ओ-सहबा रह गया

शफ़ीक़ जौनपुरी

;

मौसम-ए-गुल है न दौर-जाम-ओ-सहबा रह गया
ले गई सब को जवानी मैं अकेला रह गया

जाने क्या हो कर निगाहों से इशारा रह गया
हाए ख़ून-ए-आरज़ू जब हल के पर्दा रह गया

इश्क़ की रुस्वाइयाँ वो हुस्न की बद-नामियाँ
हम भुला बैठे मगर दुनिया में चर्चा रह गया

इक सरापा नाज़-ए-तन्हाई मज़ार-ए-आशिक़ाँ
हाए वो आलम कि जब ख़ुद हुस्न तन्हा रह गया

रोब-ए-हुस्न आदाब-ए-इश्क़ उन की हया का एहतिराम
उठ गई चिलमन तो अब पर्दा ही पर्दा रह गया

कुछ बढ़ाना था मज़ाक़-ए-बंदगी का हौसला
फेर ली तू ने नज़र शर्मा के सज्दा रह गया

इन के जल्वों ने हज़ारों को नवाज़ा ऐ 'शफ़ीक़'
आह अपनी बे ज़बाँ नज़रों को शिकवा रह गया