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मौसम-ए-गुल आ गया फिर दश्त-पैमाई रहे | शाही शायरी
mausam-e-gul aa gaya phir dasht-paimai rahe

ग़ज़ल

मौसम-ए-गुल आ गया फिर दश्त-पैमाई रहे

शाग़िल क़ादरी

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मौसम-ए-गुल आ गया फिर दश्त-पैमाई रहे
ऐ जुनूँ लाज़िम है शग़्ल-ए-आबला-पाई रहे

लाख मिज़राब-ए-अलम की कार-फ़रमाई रहे
ऐ रबाब-ए-इश्क़ फिर भी नग़्मा-पैराई रहे

देखना है सोज़-ओ-साज़-ए-मौसम-ए-गुल की बहार
इमतिज़ाज-ए-शो'ला-ए-ओ-शबनम की रा'नाई रहे

आ सका लब तक किसी के भी न हर्फ़-ए-मुद्दआ'
हम तमन्नाई रहे वो भी तमन्नाई रहे

हम भी दिखलाएँ जहाँ को दिल के दाग़ों की बहार
आप की हासिल अगर हम को मसीहाई रहे

जुस्तुजू-ए-यार में पाया न कोई दम क़रार
निकहत-ए-गुल की तरह आलम में हरजाई रहे

रौनक़-ए-दैर-ओ-हरम का 'क़ादरी' क्या पूछना
रौशनी इक शम्अ' की दो घर में जब छाई रहे