मौज-ए-सरसर की तरह दिल से गुज़र जाओगे
किस को मालूम था तुम दिल में उतर जाओगे
चार-सू वक़्त की गर्दिश की फ़सील-ए-शब है
बच के इस गर्दिश-ए-दौराँ से किधर जाओगे
आईना-ख़ाने से दामन को बचा कर गुज़रो
आईना टूटा तो रेज़ों में बिखर जाओगे
इक ज़रा और क़रीब-ए-रग-ए-जाँ आओ तो
मेरे ख़ूँ-नाब में तुम ढल के सँवर जाओगे
देखो वो चाँद सिसकता है उफ़ुक़ की हद पर
तुम भी इस चाँद की मानिंद गुज़र जाओगे
इस भरी बज़्म से हंस-बोल के रुख़्सत हो लो
कल जो उट्ठोगे तो बा-दीदा-ए-तर जाओगे
ग़ज़ल
मौज-ए-सरसर की तरह दिल से गुज़र जाओगे
गुलाम जीलानी असग़र