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मौज-ए-नसीम-ए-सुब्ह न जोश-ए-नुमू से था | शाही शायरी
mauj-e-nashim-e-subh na josh-e-numu se tha

ग़ज़ल

मौज-ए-नसीम-ए-सुब्ह न जोश-ए-नुमू से था

राग़िब मुरादाबादी

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मौज-ए-नसीम-ए-सुब्ह न जोश-ए-नुमू से था
जो फूल सुर्ख़-रू था ख़िज़ाँ के लहू से था

तेरे सुकूत ने इसे वीरान कर दिया
दिल बाग़ बाग़ था तो तिरी गुफ़्तुगू से था

अब दिल के रहगुज़ार में वो चाँदनी कहाँ
अपना भी रब्त-ओ-ज़ब्त किसी माह-रू से था

मुद्दत हुई कि दिल का वो गुलशन उजड़ गया
शादाब जो तिरे नफ़स-ए-मुश्कबू से था

ख़्वाब-ओ-ख़याल हैं वो निशात-आफ़रीनियाँ
रक़्स-ए-बहार दिल में तिरी आरज़ू से था

सू-ए-अदब कहूँ कि इसे बे-तकल्लुफ़ी
'राग़िब' बजाए आप मुख़ातिब वो तू से था