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मौज-ए-ख़याल में न किसी जल-परी में आए | शाही शायरी
mauj-e-KHayal mein na kisi jal-pari mein aae

ग़ज़ल

मौज-ए-ख़याल में न किसी जल-परी में आए

तौक़ीर तक़ी

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मौज-ए-ख़याल में न किसी जल-परी में आए
दरिया के सारे रंग मिरी तिश्नगी में आए

फिर एक रोज़ आन मिला अब्र-ए-हम-मिज़ाज
मिट्टी नुमू-ए-पज़ीर हुई ताज़गी में आए

दामन बचा रहे थे कि चेहरा भी जल गया
किस आग से गुज़र के तिरी रौशनी में आए

ये मैं हूँ मेरे ख़्वाब ये शमशीर-ए-बे-नियाम
अब तेरा इख़्तियार है जो तेरे जी में आए

इक बार इस जहान से मिल लेना चाहिए
ऐसा न हो कि फिर ये फ़क़त ख़्वाब ही में आए

आँखों में वो लपक है न सीने में वो अलाव
इस बार उस से कहना ज़रा सादगी में आए

तन्हा उदास देख रहा था मैं चाँद को
ये फूल बहते बहते कहाँ से नदी में आए

थक-हार कर गिरा था कि आँखों में फिर गए
'तौक़ीर' वो मक़ाम जो आवारगी में आए