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मौज-ए-ग़म इस लिए शायद नहीं गुज़री सर से | शाही शायरी
mauj-e-gham is liye shayad nahin guzri sar se

ग़ज़ल

मौज-ए-ग़म इस लिए शायद नहीं गुज़री सर से

शकेब जलाली

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मौज-ए-ग़म इस लिए शायद नहीं गुज़री सर से
मैं जो डूबा तो न उभरूँगा कभी सागर से

और दुनिया से भलाई का सिला क्या मिलता
आइना मैं ने दिखाया था कि पत्थर बरसे

कितनी गुम-सुम मिरे आँगन से सबा गुज़री है
इक शरर भी न उड़ा रूह की ख़ाकिस्तर से

प्यार की जोत से घर घर है चराग़ाँ वर्ना
एक भी शम्अ' न रौशन हो हवा के डर से

उड़ते बादल के तआ'क़ुब में फिरोगे कब तक
दर्द की धूप में निकला नहीं करते घर से

कितनी रानाइयाँ आबाद हैं मेरे दिल में
इक ख़राबा नज़र आता है मगर बाहर से

वादी-ए-ख़्वाब में उस गुल का गुज़र क्यूँ न हुआ
रात भर आती रही जिस की महक बिस्तर से

तान-ए-अग़्यार सुनें आप ख़मोशी से 'शकेब'
ख़ुद पलट जाती है टकरा के सदा पत्थर से