EN اردو
मौज-ए-दरिया को पिएँ क्या ग़म-ए-ख़म्याज़ा करें | शाही शायरी
mauj-e-dariya ko piyen kya gham-e-KHamyaza karen

ग़ज़ल

मौज-ए-दरिया को पिएँ क्या ग़म-ए-ख़म्याज़ा करें

शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी

;

मौज-ए-दरिया को पिएँ क्या ग़म-ए-ख़म्याज़ा करें
रग-ए-अफशुर्दा-ए-सहरा में लहू ताज़ा करें

दिल के महबस में करें ज़ात का मातम कब तक
आओ बाहर तो चलें वक़्त का अंदाज़ा करें

ख़ूँ है इक दौलत-ए-दिल लूट ही लें अहल-ए-फ़लक
चेहरा-ए-दाग़-ए-क़मर पर तो नया ग़ाज़ा करें

उँगलियाँ सर्द हैं फूंकें तो उन्हें होश में लाएँ
अपने सीनों पे लिखें हर्फ़-ए-वफ़ा ताज़ा करें

शीशा था इक ग़म-ए-दिल टूट के साहिल पे गिरा
मुंतशिर रेत के हर ज़र्रे का शीराज़ा करें

गुर्ग-ए-एहसास से बचने की तो कोई नहीं राह
सग-ए-तख़ईल पे बंद आँख का दरवाज़ा करें