मतलब न काबे से न इरादा कनिश्त का
पाबंद ये फ़क़ीर नहीं संग-ओ-ख़िश्त का
सरसब्ज़ हूँ जो आप दिखा दीजे ख़त-ए-सब्ज़
कुश्तों को खेत में अभी आलम हो किश्त का
उस हूर की जो गुल्शन-ए-आरिज़ की याद थी
देखा किया फ़िराक़ में आलम बहिश्त का
क्या मुंशी-ए-अज़ल की ये सनअत है देखना
माहिर नहीं किसी की कोई सरनविश्त का
नादान ए'तिराज़ है साने पे ग़ौर कर
बेजा है इम्तियाज़ यहाँ ख़ूब ओ ज़िश्त का
ऐ 'बर्क़' सैर करते हैं हम तो जहान की
हर कूचा-ए-सनम है नमूना बहिश्त का
ग़ज़ल
मतलब न काबे से न इरादा कनिश्त का
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़