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मता-ओ-माल-ए-हवस हुब्ब-ए-आल सामने है | शाही शायरी
mata-o-mal-e-hawas hubb-e-al samne hai

ग़ज़ल

मता-ओ-माल-ए-हवस हुब्ब-ए-आल सामने है

राही फ़िदाई

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मता-ओ-माल-ए-हवस हुब्ब-ए-आल सामने है
शिकार ख़ुद को बचा देख जाल सामने है

ख़याल-ए-कोहना मुक़य्यद है तेरी सोचों में
रिहाई दे कि सज़ा यर्ग़माल सामने है

मुझे मलाल है अपनी फ़लक-नशीनी पर
यही उरूज की हद फिर ज़वाल सामने है

रगों में ख़ून के बदले मचल रही है आग
ज़ियाँ बदन का न जाँ का वबाल सामने है

यही है काबा-ए-मक़्सूद इसी से जल्वा-ए-अर्श
उठा ले चाह से क़ूत-ए-हलाल सामने है

वो बा-कमाल सियाक़ ओ सबाक़ पर हावी
गुज़िश्ता उस की नज़र में मआल सामने है

सज़ा की हिम्मत-ए-आली भी हो गई पसपा
हज़ार-हा अरक़-ए-इंफ़िआल सामने है

ख़ुलूस सिक्का-ए-उफ़्तादा जेब-ए-हस्ती का
उठा के डाल दे दस्त-ए-सवाल सामने है

हमारे सब्र की हद हम पे आश्कारा हो
मुसब्बिबा सबब-ए-इश्तिआल सामने है

मुझे अज़ीज़ है सहरा-ए-मुम्किनात की सैर
ये और बात कि बाग़-ए-मुहाल सामने है

नज़र ब-ख़ैर हो 'राही' कि बू-ए-गुल की तरह
छुपा है वो मगर उस का जमाल सामने है