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मता-ए-होश यहाँ सब ने बेच डाली है | शाही शायरी
mata-e-hosh yahan sab ne bech Dali hai

ग़ज़ल

मता-ए-होश यहाँ सब ने बेच डाली है

सलाहुद्दीन नय्यर

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मता-ए-होश यहाँ सब ने बेच डाली है
तुम्हारे शहर की तहज़ीब ही निराली है

हम अहल-ए-दर्द हैं तक़्सीम हो नहीं सकते
हमारी दास्ताँ गुलशन में डाली डाली है

न जाने बज़्म से किस को उठा दिया तुम ने
तमाम शहर-ए-वफ़ा आज ख़ाली ख़ाली है

तअ'ल्लुक़ात को टूटे हुए ज़माना हुआ
वो इक निगाह मगर आज भी सवाली है

ख़ुलूस बाँटता मैं सब के घर गया लेकिन
तुम आज आए हो जब मेरा हाथ ख़ाली है

किसी की शमएँ सर-ए-शाम बुझ गईं 'नय्यर'
किसी के शहर में लेकिन अभी दीवाली है