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मस्ती-ए-दो-आलम इक मरकज़ पे सिमट आई | शाही शायरी
masti-e-do-alam ek markaz pe simaT aai

ग़ज़ल

मस्ती-ए-दो-आलम इक मरकज़ पे सिमट आई

माहिर बलगिरामी

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मस्ती-ए-दो-आलम इक मरकज़ पे सिमट आई
सो कर वो उठा कुछ यूँ लेता हुआ अंगड़ाई

पुर-शौक़ नज़र मेरी कुछ देख के ललचाई
कुछ उस के इशारों से वो हौसला-अफ़ज़ाई

यक-लख़्त हुए रुख़्सत सब सब्र-ओ-शकेबाई
तड़पा गई जब आई उस सम्त से पुर्वाई

क्या उस का असर उस पर मजमा' हो कि तन्हाई
दीवाना तो दीवाना सौदाई तो सौदाई

परवाना है दीवाना लौ शम्अ' की थर्राई
क्या रंग-ए-वफ़ा लाई इक पल की शनासाई

फ़रहाद गहे मजनूँ बन कर यहाँ जब आए
रूदाद-ए-जुनूँ हम ने हर मर्तबा दोहराई

मेरी ही बदौलत वो मशहूर-ए-दो-आलम हैं
रुस्वाई-ए-उल्फ़त ये उन के बड़े काम आई

पुरसान-ए-अलम होते रस्मन ही कभी साहब
ज़हमत न गई इतनी भी आप से फ़रमाई

ऐ बाद-ए-सबा जा कर उन से तू ही ये कह दे
दीदार का ख़्वाहाँ हूँ मिलने का तमन्नाई

मैं चुप हूँ मगर कहिए क्या हाल है ये आख़िर
माथे पे पसीना है आवाज़ है भराई

बीमार-ए-मोहब्बत का बस अब है ख़ुदा-हाफ़िज़
काम आई मसीहा की कुछ भी न मसीहाई

क्या वो भी ज़माना था मेराज-ए-मोहब्बत का
दिन-रात दर-ए-जानाँ पर नासिया-फ़रसाई

चाहे जिसे दे ज़िल्लत चाहे जिसे दे इज़्ज़त
राई को करे पर्बत पर्बत को करे राई

बस यूँही समझे अब हाल-ए-दिल-ए-अफ़्सुर्दा
चिंगारी दहकती इक जिस तरह हो कजलाई

बाज़ार-ए-निगाराँ का मंज़र वो अरे तौबा
साँचे में ढली हर शय इक पैकर-ए-रानाई

गर्दूं पे मह-ए-नौ फिर दिखलाई दिया 'माहिर'
फिर ईद-ए-मुबारक की हर-सू से सदा आई