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मस्त-ए-सहर ओ तौबा-कुनाँ शाम का हूँ मैं | शाही शायरी
mast-e-sahar o tauba-kunan sham ka hun main

ग़ज़ल

मस्त-ए-सहर ओ तौबा-कुनाँ शाम का हूँ मैं

मोहम्मद रफ़ी सौदा

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मस्त-ए-सहर ओ तौबा-कुनाँ शाम का हूँ मैं
क़ाज़ी के गिरफ़्तार नित ए'लाम का हूँ मैं

बंदा कहो ख़ादिम को चाकर कहो मुझ को
जो कुछ कहो सो साक़ी-ए-गुलफ़म का हूँ मैं

ख़िदमत में मुझे इश्क़ की है दिल से इरादत
ने मो'तक़िद-ए-कुफ़्र न इस्लाम का हूँ मैं

यक रोज़ हलाल उस को भी मैं कर के न खाया
नौकर जो ख़राबात में दो जाम का हूँ मैं

ने फ़िक्र है दुनिया की न दीं का मुतलाशी
इस हस्ती-ए-मौहूम में किस काम का हूँ मैं

यक-रंग हूँ आती नहीं ख़ुश मुझ को दो-रंगी
मुनकिर सुख़न-ओ-शेर में ईहाम का हूँ मैं

मतलूब-ए-दुआ हक़ में नहीं अपने किसू की
तालिब लब-ए-महबूब से दुश्नाम का हूँ मैं

बंदा है ख़ुदा का तो यक़ीं कर कि बुताँ का
बंदा ये जहाँ बे-ज़र-ओ-बे-दाम का हूँ मैं

है शीशा-ए-मय ऐनक-ए-पीरी मुझे 'सौदा'
नज़्ज़ारा-कुन अब शेब के अय्याम का हूँ मैं