मसीह-ए-वक़्त सही हम को उस से क्या लेना
कभी मिले भी तो कुछ दर्द-ए-दिल बढ़ा लेना
हज़ार तर्क-ए-वफ़ा का ख़याल हो लेकिन
जो रू-ब-रू हों तो बढ़ कर गले लगा लेना
किसी को चोट लगे अपने दिल को ख़ूँ करना
ज़माने भर के ग़मों को गले लगा लेना
ख़ुमार टूटे तो कैसे कि हम ने सीख लिया
जो तू न हो तो तिरी याद से नशा लेना
सफ़ीना डूब भी जाए तो ग़म नहीं 'फ़ारिग़'
न भूल कर कभी एहसान-ए-नाख़ुदा लेना
ग़ज़ल
मसीह-ए-वक़्त सही हम को उस से क्या लेना
फ़ारिग़ बुख़ारी