मसाफ़त-ए-उम्र में ज़ियाँ का हिसाब होता है जुस्तुजू से
मगर मैं दुनिया को देखता हूँ चराग़ और आइने की रू से
मैं उस गुल-ख़्वाब की मअय्यत में साँस लेते भी डर रहा हूँ
कि शाख़ बढ़ने से बेशतर ही न क़त्अ हो ख़्वाहिश-ए-नुमू से
नशात-ए-इज़हार पर अगरचे रवा नहीं ए'तिबार करना
मगर ये सच है कि आदमी का सुराग़ मिलता है गुफ़्तुगू से
मैं एक मुद्दत से इस जहाँ का असीर हूँ और सोचता हूँ
ये ख़्वाब टूटेगा किस क़दम पर ये रंग छूटेगा कब लहू से
ये मिशअल-ए-ख़्वाब भी न 'साजिद' किसी सितारे की पेश-रौ हो
कि मेरे सीने में एक ग़म ने नुमूद पाई है आरज़ू से
ग़ज़ल
मसाफ़त-ए-उम्र में ज़ियाँ का हिसाब होता है जुस्तुजू से
ग़ुलाम हुसैन साजिद